कोरोना की कहानी
पिछली रात भंडारे से लाई पूड़ियाँ काका सिर के नीचे दबा कर सोया था, महसूस किया की कोई निकाल रहा है,
जब तक उठा कुत्ते ने पूड़ियाँ जूठी कर दी...
काका के संस्कारों में शुमार था के
कुत्ते ने महज आधी पूड़ी खाई बांकी फैला दी।
काका झुंझलाकर
काका की तरह कई जो जवानी में मजदूर थे उनका घर था दिल्ली का ये फ्लाई ओवर ब्रिज।
आज काका को सर्दी सी लग रही थी, नाक बह रही, शरीर में कुछ दर्द भी समझ आ रहा।
काका ने सुन रखा था कोरोना वायरस के बारे में, सोचा कही मुझे वही तो नही...
आज ये पुल के चारो ओर कोई आदमी नही दिख रहा था, इतनी भीड़ रहती थी कल तक,
तभी पुलिस की गाड़ी निकली और चोंगे पे कुछ कह रही थी...
ध्यान से सुनने में समझ आया की "प्रधान मंत्री ने बंद का ऐलान किया है, सब अपने घर में रहे।"
चलते चलते काका फ्लाई ओवर के दूसरे छोर पहुच गये,
पुलिस वाले निगरानी कर रहे थे,
हर उस आदमी को जो बंद की तफ्तीश करने निकला था, बंद की निसानी उसके तशरीफ़ पे रसीद कर रहे थे।
काका डर के मारे एक किनारे बैठ गये, शरीर में दर्द और आलस भी खूब, बस समय कट जाय कैसे भी...
पुलिस की मार से बचते-बचाते किसी कदर दोपहर हो गई,
लेकिन तब तक भूख ने दरवाजा खटखटा दिया था...
जब कोई बाहर निकल ही नही रहा तो खाना कहां से मिलेगा बेचारे को।
बेचैनी बढ़ने सी लगी उसकी।
आज का दिन हफ़्तों बराबर लग रहा था..
जैसे-तैसे खांसते, छीकते, नाक पोंछते, पेट पकड़ते रात हो गई, अब तक उसकी क्षुधा ने दर्द का रूप धर लिया था।
आधी रात जब नींद हार गई और भूख का दर्द असहनीय हुआ दिल कोस रहा था उस आदमी को जिसने बंद का ऐलान किया था,
और गालियां बक रहा था, कही उस कुत्ते को, कही इस सियासत को...
काका उठा और चल पड़ा कुत्ते की जूठी पूड़ी की आस में।
पुल के उस पार एक कोने में धूल से सनी पूड़ी, अकड़ रही थी और तंज कस रही थी के "खा सकता है तो खा ले..."
काका पूड़ी उठा कर रोड के उस पार मंदिर में लगे नल की ओर दौड़ा,
पानी तो नही चल रहा था पर नीचे गड्ढों मे भरा था...
काका ने कुछ पल पूड़ियाँ उसी के अंदर छोड़ दी...
निकालने पर पूड़ियाँ मुलायम थी,
खा तो रहा था पर किस्मत को गाली देते हुए।
अपनी किस्मत को कोषता-रोता काका मंदिर के बगल में सो गया।
सुबह आंख कुली तो सैकड़ो लोगों का एक काफिला चला जा रहा था, बड़ा अजीब, कोई रोता-बिलखता, कोई बच्चे तो कोई बीबी को कंधे पे टांगे, हर कोई परेशान, मनहूस सूरत बनाये चला जा रहा था,
आज तबीयत ज्यादा खराब लग रही थी, दर्द ज्यादा, खासी भी ज्यादा शरीर तो भट्टी जैसा तप रहा था...
लेकिन इस उम्मीद में की आज भूखा तो नही सोना पड़ेगा उस काफिले के साथ चल पड़ा...
कुछ दूर चल कर पता चला ये मजदूर है जो बंद में काम छिन जाने और वाहन बंद हो जाने की वजह से पैदल ही चल पड़े सैकड़ों मील दूर अपने गाँव के लिए।
काका का डर सीमा से बाहर...
एक सिपाही से नजर टकराई और जैसे बिजली के दो तारो मे सार्ट सर्किट हो गया हो,
तुरंत नजर हटा ली...
काका का पसीना शुरू,
अनसुना कर लंबे कदम भरता चल पड़ा
काका की घबराहट सातवे आसमान पहुच गयी, दिल की धड़कन इंजन सी चली जा रही थी, अंदर से थर-थराया जा रहा था,
काका ने अपनी रफ्तार और बढ़ा ली
सिपाही दौड़े...
काका ने भी दौड़ शुरू कर दी...
कुछ दस कदम में ही काका हांफ दिया,
सिपाही ने डंडे का एक प्रहार उसकी तशरीफ़ पे दिया, काका सड़क पे गिर पड़ा...
मौत का अहसास उसे हो गया, पर मरने की इच्छा नही थी...
आंसू निकले जा रहे थे, कुछ देर सुस्ता कर
सिपाही आँखे दिखाता हुआ
काका रोता-बिलखता
सिपाही डर गये
आंखों में मौत सा दर्द लिए काका बेहोस हो गये
पता नही बेहोसी दर्द से थी या डर से...
जब आंख खुली तो कोमल बिस्तर पे,
अस्पताल में उसे एकान्त कर दिया गया था।
शरीर तप रहा था, सीने में दर्द भी बदन से ज्यादा था...
कंपोंडर ने नहाने कहा और नये कपड़े दिये पहनने को...
स्नान के बाद बिस्तर में एक थाली दिखी जिसमें रोटी सब्जी दाल और सलाद था,
काका का दिल खुश हो गया आँखे चमक पड़ी...
खाने के बाद दवाइयां ली और बिस्तर पे लेटे-लेटे विचार मंथन चल रहा था
सोच विचार करते शाम हो गई,
उसकी जांच रिपोर्ट के साथ डॉक्टर आये-
काका अब ज्यादा परेशान हो गये, कुछ ही दिन में ठीक हो जाने का दुख था,
रात तक इसी दुख के साथ जागता रहा और परेशान रहा।
रात का खाना आया-रोटी सब्जी सलाद, दवाई भी, काका ने खाना खाया पर दवाई कूड़ेदान में फेंक दी।
काका ठीक होना नही चाहता था, उसे इस कमरे के अंदर पंखे के नीचे, नाजुक बिस्तर पर ज्यादा मजा आ रहा था,
अपने को खुशकिस्मत समझ रहा था,
यही सोचते रात गुजरी।
अगली सुबह जोरदार खांसी और दर्द के साथ नींद खुली,
काका रोज खाना खाकर दवाई फेंक देता था,
हालात भी बिगड़ती जा रही थी,
करीब 10 दिन में तबीयत, बिगड़ते-बिगड़ते इस हद तक पहुची कि..
पूरा शरीर शिथिल हो गया, अब खाना और दवाइयां मुह से नही नलियों से दी जाती थी,
थकान इतनी की सांस लेना तो दूर छोड़ना भी मुश्किल था, साँसे भी सिलेंडर से दी जा रही थीं।
काका को अहसास हो गया की, आखिरी वक्त है पर मौत का एक भी ग़म नही था, ना ही मौत का डर था।
वह खुश था के जिंदगी भर जिस आराम के लिए जूझता रहा इस बीमारी ने दिला दिया,
सुकून था के कम से कम महामारी के डर से मेरी लाश को चील कौवों को खाने के लिए छोड़ तो नही दिया जायगा।
वह मर रहा था पर चेहरे पे मुस्कान थी,
धुंधला सा दिख रहा था पर आंखों की चमक बरकरार थी
एक और खुशी थी के सुकून से मरने से आत्मा को शांति मिलेगी।
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जब तक उठा कुत्ते ने पूड़ियाँ जूठी कर दी...
काका के संस्कारों में शुमार था के
"खाते वक्त कुत्ते को भी नही मारते"
कुत्ते ने महज आधी पूड़ी खाई बांकी फैला दी।
काका झुंझलाकर
"अब ये मेरे किस काम की?"
गालियां बकता रहा...
काका की तरह कई जो जवानी में मजदूर थे उनका घर था दिल्ली का ये फ्लाई ओवर ब्रिज।
आज काका को सर्दी सी लग रही थी, नाक बह रही, शरीर में कुछ दर्द भी समझ आ रहा।
काका ने सुन रखा था कोरोना वायरस के बारे में, सोचा कही मुझे वही तो नही...
"अरे नही वो तो अमीरो की बीमारी है, जो देश-विदेश घूम-घाम के आते है हम गरीबों को कहा होगा"
आज ये पुल के चारो ओर कोई आदमी नही दिख रहा था, इतनी भीड़ रहती थी कल तक,
तभी पुलिस की गाड़ी निकली और चोंगे पे कुछ कह रही थी...
ध्यान से सुनने में समझ आया की "प्रधान मंत्री ने बंद का ऐलान किया है, सब अपने घर में रहे।"
चलते चलते काका फ्लाई ओवर के दूसरे छोर पहुच गये,
पुलिस वाले निगरानी कर रहे थे,
हर उस आदमी को जो बंद की तफ्तीश करने निकला था, बंद की निसानी उसके तशरीफ़ पे रसीद कर रहे थे।
काका डर के मारे एक किनारे बैठ गये, शरीर में दर्द और आलस भी खूब, बस समय कट जाय कैसे भी...
पुलिस की मार से बचते-बचाते किसी कदर दोपहर हो गई,
लेकिन तब तक भूख ने दरवाजा खटखटा दिया था...
जब कोई बाहर निकल ही नही रहा तो खाना कहां से मिलेगा बेचारे को।
बेचैनी बढ़ने सी लगी उसकी।
आज का दिन हफ़्तों बराबर लग रहा था..
जैसे-तैसे खांसते, छीकते, नाक पोंछते, पेट पकड़ते रात हो गई, अब तक उसकी क्षुधा ने दर्द का रूप धर लिया था।
आधी रात जब नींद हार गई और भूख का दर्द असहनीय हुआ दिल कोस रहा था उस आदमी को जिसने बंद का ऐलान किया था,
और गालियां बक रहा था, कही उस कुत्ते को, कही इस सियासत को...
काका उठा और चल पड़ा कुत्ते की जूठी पूड़ी की आस में।
पुल के उस पार एक कोने में धूल से सनी पूड़ी, अकड़ रही थी और तंज कस रही थी के "खा सकता है तो खा ले..."
काका पूड़ी उठा कर रोड के उस पार मंदिर में लगे नल की ओर दौड़ा,
पानी तो नही चल रहा था पर नीचे गड्ढों मे भरा था...
काका ने कुछ पल पूड़ियाँ उसी के अंदर छोड़ दी...
निकालने पर पूड़ियाँ मुलायम थी,
खा तो रहा था पर किस्मत को गाली देते हुए।
अपनी किस्मत को कोषता-रोता काका मंदिर के बगल में सो गया।
सुबह आंख कुली तो सैकड़ो लोगों का एक काफिला चला जा रहा था, बड़ा अजीब, कोई रोता-बिलखता, कोई बच्चे तो कोई बीबी को कंधे पे टांगे, हर कोई परेशान, मनहूस सूरत बनाये चला जा रहा था,
आज तबीयत ज्यादा खराब लग रही थी, दर्द ज्यादा, खासी भी ज्यादा शरीर तो भट्टी जैसा तप रहा था...
लेकिन इस उम्मीद में की आज भूखा तो नही सोना पड़ेगा उस काफिले के साथ चल पड़ा...
कुछ दूर चल कर पता चला ये मजदूर है जो बंद में काम छिन जाने और वाहन बंद हो जाने की वजह से पैदल ही चल पड़े सैकड़ों मील दूर अपने गाँव के लिए।
एक नौजवान अपने झुंड को फोन में पढ़ कर सुना रहा था कि "सरकार ने कोरोना वायरस से बीमार आदमी को गोली मारने का आदेश दिया है क्योंकि वो और दस को बीमार करेगा"
काका का डर सीमा से बाहर...
"लक्षण तो कुछ ऐसे ही हैं मेरे भी"
एक सिपाही से नजर टकराई और जैसे बिजली के दो तारो मे सार्ट सर्किट हो गया हो,
तुरंत नजर हटा ली...
सिपाही शक से "ए तुम इधर आओ"
काका का पसीना शुरू,
अनसुना कर लंबे कदम भरता चल पड़ा
सिपाही "ए बुढऊ, सुनता नही क्या? रुक, इधर आ"
काका की घबराहट सातवे आसमान पहुच गयी, दिल की धड़कन इंजन सी चली जा रही थी, अंदर से थर-थराया जा रहा था,
काका ने अपनी रफ्तार और बढ़ा ली
सिपाही "पकड़ स्साले को भाग रहा है"
सिपाही दौड़े...
काका ने भी दौड़ शुरू कर दी...
कुछ दस कदम में ही काका हांफ दिया,
सिपाही ने डंडे का एक प्रहार उसकी तशरीफ़ पे दिया, काका सड़क पे गिर पड़ा...
मौत का अहसास उसे हो गया, पर मरने की इच्छा नही थी...
सिपाही "क्यों भाग रहा बे बुढऊ, क्या चुराया तूने?
आंसू निकले जा रहे थे, कुछ देर सुस्ता कर
"साहब गोली मत मारना साहब, मत मारना..."
सिपाही आँखे दिखाता हुआ
"बता क्यों भागा वरना गोली मार दूंगा"
काका रोता-बिलखता
"साहब मुझे वही बीमारी है पर गोली मत मारना"
सिपाही डर गये
"हट स्साले भाग, खुद भी मरेगा हमें भी मरवाएगा"
आंखों में मौत सा दर्द लिए काका बेहोस हो गये
पता नही बेहोसी दर्द से थी या डर से...
जब आंख खुली तो कोमल बिस्तर पे,
अस्पताल में उसे एकान्त कर दिया गया था।
शरीर तप रहा था, सीने में दर्द भी बदन से ज्यादा था...
कंपोंडर ने नहाने कहा और नये कपड़े दिये पहनने को...
स्नान के बाद बिस्तर में एक थाली दिखी जिसमें रोटी सब्जी दाल और सलाद था,
काका का दिल खुश हो गया आँखे चमक पड़ी...
खाने के बाद दवाइयां ली और बिस्तर पे लेटे-लेटे विचार मंथन चल रहा था
"ये तो स्वर्ग है"
"पर इस स्वर मे कब तक रहूंगा?
"आदमी को ठीक होने तक तो रखते ही होंगे"
"हे भगवान! मुझे जिंदगी भर ऐसे बीमार रहने दे"
सोच विचार करते शाम हो गई,
उसकी जांच रिपोर्ट के साथ डॉक्टर आये-
"तुम्हे कुछ दिन यहीं रहना पड़ेगा,
इंफेक्शन ज्यादा नही है, ठीक हो जाओगे।
दवाइयां दी जायेगी खाने के बाद खा लेना"
काका अब ज्यादा परेशान हो गये, कुछ ही दिन में ठीक हो जाने का दुख था,
"ठीक है डॉक्टर साहब"
रात तक इसी दुख के साथ जागता रहा और परेशान रहा।
रात का खाना आया-रोटी सब्जी सलाद, दवाई भी, काका ने खाना खाया पर दवाई कूड़ेदान में फेंक दी।
काका ठीक होना नही चाहता था, उसे इस कमरे के अंदर पंखे के नीचे, नाजुक बिस्तर पर ज्यादा मजा आ रहा था,
अपने को खुशकिस्मत समझ रहा था,
ये तो सच में अमीरों की बीमारी है।
यही सोचते रात गुजरी।
अगली सुबह जोरदार खांसी और दर्द के साथ नींद खुली,
काका रोज खाना खाकर दवाई फेंक देता था,
हालात भी बिगड़ती जा रही थी,
करीब 10 दिन में तबीयत, बिगड़ते-बिगड़ते इस हद तक पहुची कि..
पूरा शरीर शिथिल हो गया, अब खाना और दवाइयां मुह से नही नलियों से दी जाती थी,
थकान इतनी की सांस लेना तो दूर छोड़ना भी मुश्किल था, साँसे भी सिलेंडर से दी जा रही थीं।
काका को अहसास हो गया की, आखिरी वक्त है पर मौत का एक भी ग़म नही था, ना ही मौत का डर था।
वह खुश था के जिंदगी भर जिस आराम के लिए जूझता रहा इस बीमारी ने दिला दिया,
सुकून था के कम से कम महामारी के डर से मेरी लाश को चील कौवों को खाने के लिए छोड़ तो नही दिया जायगा।
वह मर रहा था पर चेहरे पे मुस्कान थी,
धुंधला सा दिख रहा था पर आंखों की चमक बरकरार थी
एक और खुशी थी के सुकून से मरने से आत्मा को शांति मिलेगी।
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